Who is sayyed Aminul Qadri : कौन हैं अमीनुल क़ादरी आईये जानते हैं : सुन्नी दावते इस्लामी के मुबल्लिग़ व निगरां हैं गौस पाक की 29 वीं पुश्त के सिलसिला नसब से हैं महाराष्ट्र राज्य के ज़िला नासिक के शहर मालेगांव के रहने वाले हैं
इनकी पैदाईश 29.5.1983 बरोज़ शनिवार 16 शाअबानुल मोअज़्ज़म को हुई आपके खानदान मे पढ़े लिखें साहिबे विलायत व क़ाज़ी शरअ के मनसब पर रहे मगर कई पुश्तो मे किनही वजूहात की वजह से इल्मे दींन की कमी के रहते गुमनामी व मुफलिसी का सामना करना पड़ा आपके दादा सरकारी मुलाज़िम थे उस दौरान आपके वालिद ने रिक्शा चलाया व मज़दूरी भी की इबतिदाई तालीम दादी व वालिदा से सीखी वालिद और वालिदा ने सादगी से भरी ज़िन्दगी गुज़ारी तालीम का सफर मालेगांव सरकारी स्कूल कक्षा 1 से 7 तक बाद मे अंजुमन स्कूल से कक्षा 8 से 11 तक पढ़े l बाद में सरकार के इश्क़ में शरीअत के खिलाफ़ कामों से बचने के लिए स्कूली तालीम छोड़ आलिम बनने का फैसला लिया क्यूंकि वहाँ जवान लडके लड़कियां एक साथ पढ़ते थे l आपके उस्ताद अल्लामा इस्माइल साहब व अब्दुल अज़ीज़ साहब रहे l मौजूदा वक़्त में आप इंग्लिश मीडियम स्कूल के चेयरमैन हैं l बाद में मौलाना आज़ाद से एम. ए करने की कोशिश की l 1994 से तहरीक सुन्नी दावते इस्लामी से जुड़े l कक्षा 4 से ही दोपहर तक स्कूल दोपहर बाद मदरसे से तालीम हासिल की l 2003 मे पहला हज किया दूसरा हज 2005 में किया वहाँ ताजुशशरीया से ख़ास मुलाक़ात हुई उसके बाद बरेली भी अक्सर मुलाक़ाते होती रहीं l अनगिनत उमरे किये, दुबई, अफ्रीका, मुल्के शाम, इराक़ बग़दाद शरीफ, करबला व नज़फ की कई बार हाज़िरी की l 2004 में शादी की l आपने पैग़ाम दिया कि अगर आपकी घरेलू ज़िन्दगी खूबसूरत है तो अपने घर से खिराज वसूल करो, अपनी ज़ात को बाहर से पहले अपने अख़लाक़ से अपने घर वालों से मनवाओ,दुनियां का बेहतरीन इंसान वोही है l पसन्दीदा शेर : हुस्न के सौ लिबास हैं फिर भी वो मुतमइन नहीं, इश्क़ पहन के मस्त है ये एक दरीदा पैरहन l आलिम नुमा आलिम और आलिम के बीच के फ़र्क़ को समझाकर उलेमा व बुज़ुर्गो की तरीक़त को परिभाषित किया l मदरसा गौसिया से तालीम के दौरान मुशायरे से शेर कहने का शौक़ हुआ l आक़ा की मोहब्बत में 5 से 6 दर्जन कलाम अपने लिखे उसमें कुछ इस तरह हैं : काश आँखों में मुझको रख लेते, सुरमाए चश्म बन गया होता l देखकर मुझको ज़ीनतें करते, आईना उनका बन गया होता l जब आक़ा की याद बहुत सताती थी तब लिखा : शबे हिज्र है और पिछला पहर है, चले आओ दीदा व दिल मुन्तज़िर है l तुम्हे खस्ता जिगर तक रहा है, अमीने हज़ी शौक़ से जग रहा है l बहुत आज़माते हो तुम, बहुत याद आते हो तुम l आपने कहा : फूल हैं हुसैने हसन, बन गयी तब से बात फूलों की l क्यों खडे हैं सय्यदुर रसूल, वो देखो आ रही हैं फातिमा, शक्ल में सखा वजूद में, बाप की शबीह हैं फातिमा l आपके क़ायद शाकिर अली नूरी साहब हैं l पहली तक़रीर मदरसे में अपने ही शहर माले गांव में पब्लिक को इजतिमा की दावत देने के लिए दुरुद शरीफ की फज़ीलत के topic पर 1994 में की l आपकी सभी तक़रीरे इस्लाही होती हैं
लेखक : भाई सैयद इफ़्तेख़ार मियां